महाभारत में धर्म की त्रिवर्ग में महत्ता
Abstract
भारतीय संस्कृति के सांस्कृतिक तत्वों में एक है आश्रम व्यवस्था। हिन्दु सामाजिक संगठन के अन्तर्गत आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन भारतीय मनीषियों का मानव जीवन के प्रति एक सर्वांगीण दृष्टिकोण था। वर्णधर्म की भांति आश्रम धर्म की भारतीय संस्कृति की प्रमुख देन है। अपनी आव‛यकताओं के अनुसार निरन्तर विकास करते हुए अपने जीवन को सार्थक बनाने की अभिलाषा भी मनुष्य में सदा रही है। मानव की सभी प्रकार की इच्छाओं और जिज्ञासाओं का संकलन करके प्राचीन भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के चार प्रयोजनों का निर्धारण किया-धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष इन्हें चार पुरूषार्थो का नाम दिया। भारतीय धर्म‛ाास्त्र में मानव जीवन के ये चार पुरूषार्थ वर्णित हैं। इस पुरूषार्थ चतुष्टय के सिद्धान्त की संरचना भारत के ऋषियों, मुनियों और विद्वतजनों ने मानव जीवन के आध्यात्मिक और व्यावहारिक पक्ष को दृष्टि में रखकर की थी। ‘‘पुरूषार्थ’’ ॉाब्द का अर्थ है-मनुष्य के जीवन का प्रयोजन तथा उस प्रयोजन की सिद्धि के लिये उद्योग। मनुष्य का मुख्य प्रयोजन है-सुखी जीवन। मनुष्य का जीवन तभी सुखी हो सकता है, जब उसकी आव‛यकतएं, इच्छाएं और लक्ष्य पूरे हो सकें। इन आव‛यकताओं, इच्छाओं तथा लक्ष्यों को ध्याम में रखकर ही पुरूषार्थो की संख्या चार मानी गई है। इन पुरूषार्थो की सिद्धि मनुष्य ही कर सकता है और ये उसके जीवन के प्रमुख अभिलक्षित तत्व है।